Repeal farm Laws Prime Minister Narendra Modi repeated the same mistake in withdrawing the farm law
किसान आंदोलन: कृषि कानून खत्म करने में भी पीएम मोदी ने दोहराई वही गलती, बातचीत किए बिना लिया एकतरफा फैसला
भाजपा सांसद वरूण गांधी और मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक लंबे समय से किसानों से बातचीत किए जाने की मांग कर रहे थे। इन नेताओं का कहना था कि केंद्र सरकार को किसानों के साथ बैठकर कर इस मसले का हल निकालना चाहिए। वरुण गांधी ने लगातार ट्वीट कर कहा कि ये किसान भी हमारे ही भाई-बहन हैं और उन्हें अनंतकाल के लिए सड़कों पर नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने गन्ना और अन्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी विचार करने की मांग की थी…
अपनी सुपरिचित शैली में एक बार फिर लोगों को चौंकाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ा निर्णय लिया और तीनों विवादित कृषि कानूनों के वापसी की घोषण कर दी। लेकिन कहा जा रहा है कि इस बड़े फैसले के समय भी केंद्र ने वही गलती दोहराई जो इन कानूनों को लाने के समय की गई थी। विवादित कृषि कानूनों को लाने के समय भी केंद्र सरकार ने संबंधित पक्षों से बातचीत करने और उनकी राय लेने की कोई कोशिश नहीं की थी, और आज कानूनों को खत्म करने का एलान करते समय भी केंद्र ने किसी से कोई बातचीत नहीं की। इसे केंद्र की राजनैतिक शैली की बड़ी खामी के तौर पर देखा जा रहा है।
बनी रहेगी गले की फांस!
प्रधानमंत्री की कानूनों को खत्म करने की घोषणा के बाद भी आंदोलन की समाप्ति पर असमंजस बरकरार है। किसान नेता अब न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार को झुकाने की तैयारी कर रहे हैं। राकेश टिकैत, अविक साहा जैसे किसान नेताओं ने कह दिया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सहमति के बिना आंदोलन को समाप्त करने पर कोई निर्णय नहीं किया जाएगा। यह ऐसी स्थिति बन रही है कि जिसमें कृषि कानूनों के समाप्त होने के बाद भी सरकार के गले की फांस बरकरार रहने वाली है। यानी कृषि कानून खत्म होने के बाद भी वह संकट टला नहीं है, जिसे टालने के लिए सरकार ने इतना बड़ा फैसला लिया है।
यदि सरकार बातचीत से इस मामले का हल निकालने की कोशिश करती तो ‘कुछ कदम हम आगे बढ़ें, कुछ कदम तुम आगे बढ़ो’ की नीति पर चलते हुए केवल कृषि कानूनों की समाप्ति पर ही किसानों को सहमत कराया जा सकता था, लेकिन केंद्र सरकार ने एक तरफा कानून खत्म करने का निर्णय लेकर उनसे सौदेबाजी का यह अवसर हाथ से गवां दिया है। माना जा रहा है कि ‘अचानक फैसले लेकर लोगों को चौंकाने वाली’ इस सोच का राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा।
मुफ्त बिजली और एमएसपी से बढ़ेगी महंगाई
न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर सरकार दोहरे दबाव में होगी। यदि वह किसानों की मांग के अनुरूप सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पूरी फसल की खरीद के लिए तैयार होती है, तो इसके लिए भारी मात्रा में धन की आवश्यकता होगी जो फिलहाल सरकार के पास नहीं है। यदि फसलों के उत्पादन मूल्य को घटाने के लिए बिजली-पानी मुफ्त देने की घोषणा की जाती है तो भी सरकार पर दबाव बढ़ेगा।
खुले बाजार में भी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने पर बाजार में खाद्यान्न के भाव आसमान छूने की संभावना है। इसके कारण महंगाई बढ़ेगी और आम आदमी को भारी कीमत चुकाकर अनाज खरीदना पड़ेगा। इससे भी आम आदमी की सरकार से नाराजगी बढ़ सकती है।
भाजपा सांसद वरूण गांधी और मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक लंबे समय से किसानों से बातचीत किए जाने की मांग कर रहे थे। इन नेताओं का कहना था कि केंद्र सरकार को किसानों के साथ बैठकर कर इस मसले का हल निकालना चाहिए। वरुण गांधी ने लगातार ट्वीट कर कहा कि ये किसान भी हमारे ही भाई-बहन हैं और उन्हें अनंतकाल के लिए सड़कों पर नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने गन्ना और अन्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी विचार करने की मांग की थी। इसी प्रकार सतपाल मलिक ने जोर देकर कहा था कि केंद्र सरकार केवल ताकत के बल पर आंदोलनकारियों को नहीं झुका सकती।
माना जा रहा है कि यदि केंद्र सरकार अमित शाह, वरुण गांधी और सतपाल मलिक जैसे पार्टी नेताओं को आगे कर आंदोलन खत्म कराने की पहल करती, तो इससे पार्टी नेताओं का ही कद बढ़ता। इससे पार्टी चुनाव में यह संदेश भी दे सकती थी कि उसने किसानों और जनता की बात सुनी और उसके हितों को देखते हुए कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया।
लेकिन जिस तरह कानून खत्म कराने का काम किया गया है, उससे यही संकेत जा रहा है कि केंद्र सरकार ने चुनावों में हार के डर से यह निर्णय लिया है। विपक्ष इसका लाभ लेने की कोशिश अवश्य करेगा और चुनावों में भाजपा को इसका नुकसान हो सकता है। इस स्थिति से बचा जा सकता था।
कानून लाने से पहले करनी चाहिए थी किसानों से बात
किसान नेता डॉ. आशीष मित्तल ने कहा कि ये तीनों कृषि कानून देश के 14 करोड़ किसान परिवारों और लगभग 70 फीसदी आबादी की जिंदगी पर सीधा असर डालने वाले थे। इतना बड़ा निर्णय लेने के पहले प्रधानमंत्री को लोगों से बातचीत कर इस मसले पर उनकी राय जानने-समझने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन केंद्र सरकार ने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों से बातचीत के बिना यह कानून लाने की गलती की। उन्होंने कहा कि यदि कानून लाने के पहले सरकार ने बातचीत की होती तो थोड़े बदलाव के साथ एक राह तलाशी जा सकती थी।
उन्होंने कहा कि किसान सरकार से लगातार बातचीत करने की बात कर रहे थे, लेकिन केंद्र की तरफ से बातचीत की कोई पहल नहीं की जा रही थी। यह स्थिति केंद्र की हठधर्मी सोच को दिखा रही थी। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री कानून को समाप्त करते समय भी लोगों से बातचीत कर बेहतर तरीके से हल निकाल सकते थे।
SC पैनल के सदस्य बोले: वे सिर्फ चुनाव जीतना चाहते हैं, भाजपा ने किसान हित के ऊपर राजनीति को चुना
सुप्रीम कोर्ट पैनल के सदस्य अनिल घनवट ने कहा कि हमने कई सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थीं, लेकिन सरकार ने उन्हें पढ़ा तक नहीं।
केंद्र सरकार के कृषि कानूनों की वापसी के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा नियुक्त पैनल ने दुर्भाग्यपूर्ण कदम बताया है। पैनल के सदस्य अनिल घनवट कहा कि केंद्र का यह फैसला पीछे की ओर ले जाने वाला कदम है।
कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्ति किए गए पैनल के सदस्य घनवट ने पीटीआई से बात करते हुए कहा कि ‘पीएम मोदी द्वारा उठाया गया यह कदम प्रतिगामी कदम है। उन्होंने किसानों की बेहतरी के बजाय राजनीति को चुना। मोदी और भाजपा ने कदम पीछे खींच लिए। वे सिर्फ चुनाव जीतना चाहते हैं और कुछ नहीं।’
हमने सुधार और समाधान सौंपे थे
अनिल घनवट ने कहा कि तीन कृषि कानून बिल पर गहन अध्ययन और दोनों पक्षों से बातचीत करके हमनें कई सुधार और समाधान सौंपे थे, लेकिन सरकार ने गतिरोध सुलझाने के लिए उन समाधानों का इस्तेमाल करने के बजाए, कानून को वापस ले लिया क्योंकि, यह फैसला पूरी तरह से राजनैतिक है, जिसका मकसद आगामी महीनों में उत्तर प्रदेश और पंजाब में चुनाव जीतना है।
हमारी सिफारिशों को सरकार ने पढ़ा तक नहीं
पैनल के सदस्य अनिल घनवट ने कहा कि हमारी ओर से उच्चतम न्यायालय को कई सिफारिशें भेजी गई थीं, लेकिन सरकार का फैसला देखकर लगता है कि कृषि कानूनों पर भेजी गई सिफारिशों को सरकार ने पढ़ा तक नहीं। उन्होंने कहा कि इस फैसले ने खेती और उसके विपणन क्षेत्र में सभी तरह के सुधारों का दरवाजा बंद कर दिया है।





